Thursday 17 September 2015

डेंगू का डंक


दिल्ली में जिस तरह से डेंगू के डकं से लोगों की जानें जा रही हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि जिदंगी की कोई कीमत ही नही रह गई । कहने में एक छोटा से मच्छर मगर इससे होने वाली बीमारी बड़ी ही भयावह है। और इससे ज्यादा भयावह है सरकार की बेरुखी। कब जागेगी सरकार। और कितनी जिदंगियाँ लीलेगा ये मच्छर। अच्छा भला इंसान केवल हफ्ते भर में मौत के मुहँ में समा जाता है। अभी हाल ही में लाडो सराय में सात साल के एक बच्चे की डेंगू से मौत से आहत उसके माँ-बाप के द्वारा खुदकुशी की खबर सुनकर बहुत दुःख हुआ। डेंगू के डंक नें पूरे परिवार को लील लिया। सुननें में आया कि नामी प्राईवेट हस्पतालों में बच्चे के माँ-बाप उसे लेकर गये थे मगर हर जगह उन्हे बेड खाली नहीं है कहकर वापस कर दिया गया । बेहद शर्मनाक। इसी तरह एक खबर मालवीय नगर, बेगमपुर की है यहाँ रहने वाले व्यक्ति के 11 वर्षीय बेटे की पाँच साल पहले डेंगू से ही मौत हो गई थी और बदकिस्मती देखो उसकी कि हर एहतियात बरतने पर भी पिछले दिनों उसकी 10 वर्षीय बेटी को भी डेगूं हो गया और डेंगू के डंक नें उसे भी लील लिया। उस बेचारे ने अपनी बेटी को बचाने के लिये कर्जा लेकर अच्छे अस्पताल में उसका इलाज भी करवाया लेकिन उसकी बेटी को बचाया नहीं जा सका। अब उस बेचारे की कोई सन्तान तो बची नहीं और ना ही नौकरी करने का उसका मन है मगर हाँ इलाज के लिये लिया गया पचास हजार रुपये का कर्जा उसे चुकाना है। अत्यन्त दुखद। ऐसे ही और कितनी खबरें रोज सुननें-पढ़नें में आ रही है। मरीजों की तादाद बढ़ती जा रही है सरकारी अस्पताल हो या प्राईवेट हर जगह मारा-मारी है। सरकारी अस्पतालों में तो एक बेड पर तीन-तीन मरीजों को रखा गया है। खून टेस्ट के लिये तो घंटो लम्बी लम्बी लाईनों में लगना पड़ रहा है।
अब सवाल यह है कि कब तक हर साल हम यूं ही डेंगू से मरते रहेंगे ? जब सरकार को भी यह पता होता है कि डेंगू से हर साल जानें जा रही हैं तो क्यों नहीं पहले ही रोकथाम के लिये उचित कदम उठाये जाते । मोदी सरकार क्यों इस ओर उचित ध्यान नहीं दे रही है। अरे भई! देश की भारतवर्ष की राजधानी है दिल्ली। मोदी जी विदेश जाईये मगर देश की राजधानी की हालत पर भी गौर करें। एक तरफ जँहा हम मगंल ग्रह पर पहुँच रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश की राजधानी में हम डेंगू से निपट नहीं पा रहे हैं। बेहतर होगा पहले हम इस जमीनी बीमारी से निजात पानें की कोशिश करें। उसी तरह केजरीवाल जी आप भी इस बीमारी की रोकथाम और इलाज के लिये उचित कदम उठायें। डेंगू से बचाव के लिये इमानदार कोशिश करनी होगी केन्द्रीय और राज्य सरकार के साथ-साथ कल्याणकारी सगठनों, संस्थाओं और हम सबको मिलकर बराबर की भागीदारी निभानी होगी। लोगों को इस बीमारी से बचाव के लिये जागृत करना होगा। डेंगू के लारवा के पनपने की अवस्था और परिस्थिति के बारे में लोगों तक सही जानकारी पहुँचानी होगी। ताकि मासूम लोगों की जिदंगियों को बचाया जा सके।
उम्मीद है कि सरकार इस विषय को गंभीरता से लेगी और उचित नीति और दिशा-निर्देश तय करेगी। ताकि भविष्य में बेकसूर लोगों को मरने से बचाया जा सके।

Monday 30 June 2014

बचपन के दिन




 
ना जाने कहाँ गये बचपन के वो दिन जब उछल कूद मचाते हुये खुशी से चहकते रहते थे। ऩा कोई चिन्ता होती थी ओर ना ही कोई काम। बस खेलना, कूदना और मजे करना यही था एक काम। उस समय पिताजी का दिया हुआ एक रुपया भी सौ रुपये के बराबर लगता था। उस एक रुपये में संतरे की टॉफी, फैण्टा का गिलास, फुलबड़ी का पैकेट और न जाने कितने ही चीजें आ जाती थी। लेकिन आज तो एक रुपये में पानी का एक गिलास भी नही मिलता।
सुबह-सुबह उठकर स्कूल जाना जितना बुरा लगता था उससे ज्यादा मजा छुट्टी की घण्टी सुनकर आता था। ऐसा लगता था मानो जैसे जेलर ने जेल से रिहाई की घण्टी बजाई हो। और उसके बाद छुट्टी होते ही सबसे पहले घर पहुँचने की होड़। और घर पहुँचकर बैग और जूतों को बिना किसी ठिकाने के इधर-उधर पटकने के बाद खाना खाकर खेलने की प्लानिंग शुरु कर देना। उस समय के खेल भी कितने मजेदार होते थे।
चाहे कंचो की कड़कड़ाहट हो, या हो लट्टू का चक्कर।
गुल्ली डण्डे की लड़ाई हो, या हो धप्पा-आईसपाईस की टक्कर।
वाह क्या खेल होते थे। बस एक बार मैदान में उतरनें की देर होती फिर तो दिन कब गुजरा कुछ पता ही नही चलता था। इन खेलों से हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था और हम चुस्त और फुर्तीले भी रहते थे जबकि आजकल के बच्चे विडियो गेम, कमप्यूटर गेम व टेलिविजन में ही लगे रहते हैं जिससे आँखो के साथ-साथ स्वास्थ्य भी खराब रहता है ओर कम उम्र में ही चश्मा चढ़ जाता है। हम तो टीवी केवल संडे को ही देखते थे क्योकिं उस दिन मोगली व अन्य मजेदार कार्यक्रम आते थे।
पतगें उड़ाने और पेचं लड़ाने का भी अपना ही अलग मजा था। 15 अगस्त के नाम पर जून से ही पतगें उड़ाना शुरु कर दिया करते थे। पतगं काटने का तो और पतंग लूटने का भी एक अलग मजा होता था। पतगं लूटने के बाद ऐसा लगता था के मानो हमने किसी युद्ध में फतेह हासिल कर ली हो।
उन दिनों मौहल्ले में रामलीला भी हुआ करती थी। जिसे देखने में बड़ा मजा आता था। रामलीला में हनुमान की सेना का रोल मिलने पर भी इतनी खुशी होती थी जैसे मानों बॉलीवूड की किसी फिल्म में रोल मिल गया हो।
बचपन के दिनों में हर छोटे – बड़े त्यौहारों की खुशी और जोश भी चरम पर होता था। कई महीनों पहले ही त्यौहारों को अपने अलग तरीके से मनानें की तैयारियाँ शुरु हो जाती थी। इन्हीं में एक दिवाली की मस्ती कई दिनों पहले ही शुरु हो जाती थी। उधर घर में सफेदी व रगं-रौगन की तैयारी शुरु होती इधर हम तरह तरह के पटाखों को छुड़ाकर मजे किया करते। आलु बम के उपर घी के खाली डिब्बे को रखकर छुड़ाना और डिब्बे का कई फुट उपर उछलकर कटोरी बन कर निचे गिरना। और साँप गोली में आग लगाकर साँप बनाना। तथा अनार, रॉकेट, फुलझड़ी व पटाखे वाली बन्दूक आदि सबके अपने अपने अलग मजे थे। इसके अलावा होली के दिन गुब्बारे व पिचकारियों से जाने व अनजाने लोगों को रगनें व भिगोने का अलग ही मजा होता था।
कितनी ही यादें हैं बचपन की इन्हें शब्दों में समेटना बहुल मुश्किल है। कितने मजेदार दिन थे वो। आज ऐसा लगता है कि मानों ये यादें मुझे अतीत के आईने से मुँह चिढ़ा रही हों। आज दुख होता है कि मै क्यूँ बड़ा हो गया। काश मैं बचपन में ही रहता और मम्मी-पापा की छत्र छाया में ही रहकर मौज मस्ती करता। आज ऐसा लगता है कि वर्तमान रुपी साँप अतीत को समय से पहले ही निगल गया हौ। आज तो खुद को समय देने का भी समय नही है। लेकिन ये सुनहरीं यादें हमेशा मन में बसी रहेंगी। दोस्तों बचपन तो गया लेकिन शुक्र है इसकी यादें तो हमारे साथ है।